Sunday, December 6, 2015

सुनहरी कलम के सोजन्य से




वह तोड़ती पत्थर  देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर  वह तोड़ती पत्थर | 
कोई न छायादार  पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार , 
श्याम तन ,भर बंधा यौवन , नत नयन ,प्रिय -कर्म -रत मन , 
गुरु हथौड़ा हाथ , करती बार -बार प्रहार - सामने तरु मल्लिका अट्टालिका ,प्राकार | 
चढ़ रही थी धूप : गर्मियों के दिन  दिवा का तमतमाता रूप :
 उठी झुलसाती हुई लू , रुई ज्यों जलती हुई भू , गर्द चिनगी छा गयीं  प्रायः हुई दुपहर ;
- वह तोड़ती पत्थर | देखते देखा मुझे तो एक बार  उस भवन की ओर देखा ,छिन्नतार :
 देखकर कोई नहीं , देखा मुझे उस दृष्टि से  जो मार खा रोयी  नहीं , सजा सहज सितार ,
 सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार  एक क्षण के बाद वह कांपी सुघर , ढुलक माथे से गिरे सीकर , 
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा - मैं तोड़ती पत्थर ! 
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
सुनहरी कलम  के सोजन्य से

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